गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

गोधराकांड - दस साल बाद



दस साल के बाद गोधराकांड के बारे में सोचता हूँ तो मन में एक प्रश्न उठता है। क्या एक्शन-रीएक्शन की फेनेटिकली मोडीफाईड (एफएम) थीयरी सही है? जैसे कि,

-       1993 में बाबरी मस्जिद को ध्वंश करने के लिये कट्टरपंथी हिन्दुओं का एक्शन।

-       2002 में गोधरा में ट्रेन जलाने का रीएक्शन

-  बदला लेने के लिये समस्त राज्य में लघुमतियों के उपर राज्य प्रेरित वंशीय संहार का एक्शन।

- घिनौने हत्याकांडो के साथ चुनावो में हिन्दुत्व की लहर का रिएक्शन,

और फिर,

पिछले दस सालो में आई वाइब्रन्ट एक्शनो की बाढ,

  रू.1200 करोड के खर्च से साकार हुई रीवरफ्रन्ट योजना, जिसने    सर्जी विस्थापितों की कतार और पंतगोत्सव की भरमार,

  जहां गांवो में से 50 से 85 प्रतिशत लोग रोजीरोटी की खोज में पलायन करते है, ऐसे कच्छ में 7000 रू के ए.सी टेन्टो में शुरू हुई रणोत्सव की क्रीडा,

-           जिसका बाजार मूल्य रू.10,000 प्रति चोरस मीटर है, उस जमीन ताता को 900 रू प्रति चोरस मीटर के भाव से बेचकर रू. 30,000 करोड रूपये का फायदा करवाया,

-          जिसके वतन रूपपुर में दलितों की स्मशानभूमि छीन ली गई उस निरमा के करसन पटेल को रू. 2500 करोड में सीमेन्ट बनाने के लिये 'देवो को भी दुर्लभ' महुवा की उपजाऊ जमीन देने की सरकार ने जिद की,

-    पिछले साल 52 लाख और इस साल 60 लाख गट्ठर रू की ‘वाईब्रन्ट' निकास में जेनेटिकली मोडिफाईड (जीएम) बीटी कोटन का 90 प्रतिशत हिस्सा है, जिसकी बोआई में हर साल एक लाख मासूम आदिवासी बच्चों की पढाई और जिंदगी खत्म होती है,

बीते दस सालो में किसने क्या किया?

भाजपा सरकार - उसने ब्युटिफिकेशन, ग्लोबलाईझेशन, प्राईवेटाईझेशन का कांग्रेस के द्वारा शुरू किये गए एजेन्डा का अत्यंत घातकी रूप से अमल किया. रीवर फ्रंट योजना का सपना दलित मेयर जेठालाल परमार के समय में कांग्रेस ने देखा था. 1984-85 में कागदीवाड को चारो तरफ पुलिस ने घेरा डाला उस वक्त स्वैच्छिक संस्थाये नदी के पट में उतर पडी थी. 2002 के नरसंहार ने नागरिक समाज को और अधिक संवेदनहीन बना दिया ऐसा कहेंगे? या बिल्डर लॉबी और सत्ता की सांठगांठ अधिक सबल बनी है ऐसा कहेगें?

कांग्रेस - गुजरात में नरेन्द्र मोदी के सबसे मजबूत समर्थक के रूप में कोंग्रेस की कामगीरी इतिहास में जरूर दर्ज की जायेगी. गुजरात में नरेन्द्र मोदी सत्ता पर रहेगा, तब तक समग्र भारत के मुसलमान कांग्रेस को ही वॉट देंगे यह समीकरण सच साबित हुआ.

सेक्युलर सवर्णों – दंगो में दलितों-आदिवासियों ने बडे पैमाने पर हिस्सा लिया, इस अफवाह का देश और दुनिया में ढोल बजा बजाकर प्रचार किया और खुद गील्ट फीलिंग में से मुक्त हो गये. सवर्ण होने के नाते दलितों, आदिवासीओं की ओर से बोलने का ठेका तो था ही, अब सेक्युलर बने तो मुसलमानो के प्रवक्ता बनने का बोलने का अधिकार भी मिल गया.

एनजीओ - दस साल बाद इन्साफ की डगर पर प्रोजेक्ट आधारित एनजीओ इकठ्ठी हो सकती है, परन्तु समुदाय इकठ्ठे नहीं होते.

मध्यम वर्ग - माधवसिंह सोलंकी गुजरात को जापान बनाने की  बाते किया करते थे, तब उन्हे एहेसास नहीं होगा कि उनके पक्ष की जडें उखाड फेंकनेवाला प्रत्याघाती विचारधारा को समर्पित पक्ष हिन्दु मध्यमवर्ग की आंखो पर विकास की पट्टी बांध देगा. बीते दस सालों में मध्यम वर्ग और भी स्वार्थी बना है. भ्रष्ट व्यवस्था के सभी लाभों को अपनी जेब में डालकर "मैं अन्ना हजारे हुँ" की टोपी पहेनकर आश्रम रोड पर दौडने लगा यह मध्यम वर्ग.

मुसलमान - गोधराकांड को एक भयानक दु:स्वप्न समझकर मुसलमान अस्तित्व के संघर्ष में दुगनी ताकात से जुट गया. भाजप गुजरात में हमेशा रहेगा ही ऐसी दहशत के साथ जीने की आदत पड गई. परन्तु लंगडे घोडे जैसी कांग्रेस को वॉट देने की लाचारी उसे खटक रही है.

दलितो - "जिस दिन हरिजन हथियार लेकर सवर्णो पर हमला करेंगे, उस दिन मैं पांव में घूंघरु पहनकर नाचूंगा" ऐसा 30 साल पहले अमदाबाद के आंबेडकर हॉल में कहनेवाले भानु अध्वर्यु के हर एक शब्द पर मैं तालिया बजाता था। 2002 में मुसलमान विरोधी सवर्ण-आक्रोश में दलितों को भी शामिल होता देख कर मैं सोचता था, क्या यही समाज परिवर्तन है, जिसके लिये मैं इतना रोमांचित था?

दस सालो में दलितों का अग्रवर्ग कांग्रेस को छोडकर भाजपा की तरफ मुडा है और सत्ताकेन्द्र के पास रहकर पर्याप्त मखन-मलाई खाने के बाद अब दलित समाज के लिये चिंतन शिबिर आयोजित कर रहा है. संघ परिवार के मासिक "समरसता सेतु" के फरवरी-2012 अंक के मुताबिक, धंधुका तहसील के ब्राह्मण बटुकों को यज्ञोपवित संस्कार प्रसंग पर गुरुमंत्र की दीक्षा एक दलित संत पूज्य श्री शंभुनाथजी महाराज के हाथो से दिया गया. गुजरात में संघ परिवार के एक प्रखर प्रचारक का शासन हो तब दलितो को ऐसी फिजूल बातो से संतोष कैसे हो सकता है? द्वारका, अंबाजी, डाकोर जैसे हिन्दुओं के पवित्र धामों में वाल्मिकी समाज के सुशिक्षित युवकों की बतौर पूजारी नियुक्ति हो तो ही सही समरसता होगी. नरेन्द्र मोदी को ये कहने की ताकात देवजीभाई रावत, प्रो. पी. जी. ज्योतिकर, मिनेश वाघेला जैसे भगवा-दलितों में है क्या?

हमने राजपुर-गोमतीपुर की बीस चालीओं के 1052 कुटुंबो के 4026 विद्यार्थीओ का सर्वे करवाया तब ड्रोप-आउट रेट का प्रमाण 54.11 जानने मिला. कोलकत्ता के सोनागाछी विस्तार की सेक्स वर्कर्स के संतानो के ड्रोप-आउट रेट का प्रमाण भी लगभग इतना है. इसकी जानकारी पश्चिम बंगाल के महिला और बाल कल्याण मंत्रालय और युनिसेफ ने संयुक्तरूप से अपने अभ्यास में दी गई है. सिर्फ एक सूत्र में दलितों की हालत व्यक्त करनी हो तो, मैं कहूंगा कि, गांव में खेत नही, शहर में शिक्षा नही."
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बीते दस सालो में दलितों और मुसलमानो के बीच जो खाई खडी हुई वह तो सिर्फ एक परिणाम है, उसकी जड तो सन् 1981 में शुरू हुये आरक्षण विरोधी दंगो में है, जिसका विस्तार से वर्णन मैंने मेरी लघु पुस्तिका "भगवा नीचे लोही" में की है. गोधरा में हुए संमेलन "न्याय की खोज" में मैंने दो प्रमुख मुद्दें कहे थे, वे प्रस्तुत करता हूँ. मैंने कहा था, "नरेन्द्र मोदी के पोलिटिकल एन्काउन्टर का समय हो गया है. तीस साल पहले गुजरात की विधानसभा में मुसलमानों के  नव प्रतिनिधि बैठते थे. आज सिर्फ चार धारासभ्य है. बाकी की पांच बेठको पर भाजपा के उम्मीदवार चुने गये है. भाजपा ने मुसलमानो के खिलाफ दलितों, आदिवासीओ और पिछडो को उकशाया और दंगे करवाये. मुसलमाने ने जो बैठके गंवाई उनमें से एक भी  बैठक पर आज दलित, आदिवासी या पिछडे वर्ग का कोई भी व्यक्ति नही चुना गया. नरेन्द्र मोदी सचमुच सदभावना चाहते है तो, कम से कम एक मुसलमान को तो उनकी केबिनेट में मंत्री बनाया होता...

आनंदीबहेन ने पाटण के दलित महोल्लो में जाकर सफाई कर्मचारी वृद्धो के पांव धोये. और समस्त गुजरात के सफाई कर्मचारी खुशी से गदगदित् हो गये. आनंदीबहेन तो नाटक करती है. हम नाटक नही करते. गोधरा का मुसलमान गुजरात का मुख्यमंत्री हो सकता है, शर्त बस इतनी है कि दलितों को समानता दिलाने के लिये उसे लडना होगा. आपकी तरह इस राज्य में बहोत लोग, दलितों, आदिवासीओ, पिछडे लोग न्याय की खोज में है. उनकी लडाई आपकी लडाई बनेगी तब ही आपकी जीत होगी."

3 टिप्‍पणियां:

  1. सोलंकीजी, आपके विचार से मै सहमत हुं। 10 एप्रिल से 16 एप्रिल 2012 दरम्यान गुजराथ ओबीसी जातीयोने मुझे गुजराथ बुलाया था। सुरत, बडोदा, भरुच, बार्डोली आदी 6 शहरोमे मैने ओबीसी जाग्रुती के स्पीच दिए। 11 एप्रिल को मैने प्रेस कॉन्फरन्स लेकर लिखित स्टेटमेंट जारी किया। यह स्टेटमेंट आपके लिए भेज रहा हुं। अगर कही गलत मुद्दा हो तो आशा करता हुं, आप मुझे करेक्ट करेंगे।


    Press Statement
    महाराष्ट्र के ओबीसी कार्यकर्ता प्रोफेसर श्रावण देवरे का यह स्टेटमेंट आज
    11 अप्रील 2012 को प्रेस के लिए जारी कीया जा रहा है।

    देशमे ओबीसी जाग्रती बली का राज ला रही है।

    करवट बदलना गुजराथ की खासियत है। पहली करवट 1980 मे ली। स्वतंत्रता आंदोलनकी वजहसे 1980 तक गुजराथ महान नेता महात्मा गांधीजी के नामसे जाना जाता था। 80 के पश्चात धिरे धिरे गुजराथ करवट बदलने लगा। जात-अछूत परंपरा के खिलाफ लढनेवाले गांधीजीका गुजराथ अछूतोंके खिलाफ लढने लगा। 1980 -1985 मे दलीतोंके रिझर्वेशन के खिलाफ देशमे पहलीबार जो दंगे हुये वो गुजराथसे हुये। इसे गुजराथ का नवनिर्माण कहा गया। 1985 के बाद गुजराथ अँटी-मुस्लीम करवट लेने लगा। और अब 2005 के बाद आपने ‘विकास की राजनीती’ अपनाई है। इन तीन दशकोमे गुजरातने ना जाने कितने कुदरती जुलूम सहे है। जमीनी जलजला, समुद्री तुफान, प्लेग का सैतान। लगता है गुजरात को यह सब सहनेकी ताकद इन बदलते हुए करवटोने दी है।
    लेकीन भांडवलशाही के वर्चस्व मे ‘विकास की राजनीती’ बहुतही सिमीत हो जाती है। समाजका जो तबका विकास की राह जानता है, उसी का विकास होता है। लेकीन समाज मे ऐसे कई तबके है, जिनको विकास की जानकारी दूर-दूर तक मालूम नही है। ए तबका पाप्युलेशनमे छौटा होता तो कोई बात नही थी। लेकीन इस अविकसित – पिछडे समाज की संख्या 52 प्रतिशत से भी ज्यादा है। इन 52 प्रतिशत के लिए गुजराथ और एक करवट लेने जा रहा है। ओबीसी करवट। लेकीन इसे करवट नही कहा जा सकता। ‘ओबीसी बदलाव’ क्रांतीकारी परीवर्तन है। करवट सोते हुए ली जाती है और क्रांती जागते हुये की जाती है। इस बदलावमे धार्मिक-साम्प्रएदायिक आयडेंटी के बजाय ओबीसी-जातीगत आयडेंटी का वर्चस्व है। इसीलिए यह क्रांतीकारी परिवर्तन है। हालही मे (पिछले महीने मे) गुजराथ के जयंतीभाई मनानी जैसे नॉनपॉलीटिकल ओबीसी नेता-कार्यकर्तोओंने राज्य मे ‘ओबीसी अधिकार यात्रा’ निकाली थी। उसको ओबीसी जनताने भारी भरकम समर्थन दिया है। और अब सभी राजनीतिक पार्टीया चाहती है की उनका प्रदेश अध्यक्ष ओबीसी बने। यह इसका प्रमाण है के गुजराथ के लोग अब सांप्रदायिक राजनीती को बढावा देना नही चाहते, अब वो पिछडों के लिए भी ‘विकास की राजनीती’ चाहते है।
    यह परिवर्तन केवल एकमात्र गुजराथ की विशेषता नही है। पुरा देश क्रांतीकारी करवट ले रहा है। यह समाज-क्रांतीकारी परिवर्तन 1990 मे ही होना था। लेकीन समाज के कुछ कट्टर पंथी संघटनो ने इसे मंदीर-मस्जिदके सांप्रदायिक करवट मे बदल दिया। इतिहास गवाह है की, कोई भी शक्ति सामाजिक परिवर्तन को ज्यादा दिनतक रोक नही सकती। उत्तर भारत इसका बहोत बडा उदाहरण है। 1990 से लेकर 2012 तक का सामाजिक-राजकिय परिवर्तन आप देख रहे है। सामाजिक-राजकिय भुकम्प का केंद्र पहले दक्षिण भारत था, अब उत्तर भारत है। और यह केंद्र धार्मिक-साम्प्रदायिक रिस्टर स्केलसे हटकर सामाजिक रिस्टर स्केलपर आ गया है। इस परिवर्तन को सबसे पहले पहचाना है अमरिका के इंटेलिजन्स ब्युरो ने। 26 मार्च 2012 के टाइम मॅगेझिन ने उसे कव्हर पेजपर छापकर पुरी दुनियाको बता भी दिया है। जो अमरिका कलतक मोदीसाहबको अपने देशमे प्रवेश नही दे रही थी, उसको आज अचानक मोदीसाहब मे भारत के प्रधानमंत्री नजर आने लगे है। हालांकी यह बात तो सांप्रदायिक संघटन (आर.एस.एस.) पहलेसे जानती है, लेकीन सबको बतानेके बजाय उसपर चुपकेसे (अपनी स्टाईल मे) अमल करना चाहती है ताकी हो रहे परिवर्तनपर उनका नियंत्रण कायम रहे।
    अब यह तय है की 2014 के जनरल इलेक्शेन ओबीसी राजनीती के प्रभाव मे होने जा रहे है। इसका मतलब है, देशका प्रधानमंत्री कोई ओबीसीही बनेगा। गुजराथ मे जो बदलाव हो रहा है वो इसी व्यापक बदलाव का एक मात्र हिस्सा है। मगर यह बदलाव क्रांतिकारी ना होते हुए सिर्फ एक करवट बनके रह जाय, ऐसी कोशिश भी चल रही है। मतलबः कीसी एक को ओबीसी मुखवटा बनाकर वोट तो बटोर लेंगे, लेकीन प्रधानमंत्री बनाएंगे ब्राम्हीणकोही। इतिहासमे ओबीसी के साथ कईबार ऐसी धोखाधडी हुयी है। इसीलिए ओबीसी को जागृत रहनेकी जरुरत है। ओबीसी प्राईम मिनिस्टर केवल ओबीसी का नकाब (मुखवटा) बनके नही रहना चाहिए। अगर यह बदलाव ओबीसी के हित मे क्रांतीकारी बनाना है, तो हमे आगे दी हुई बातोंपर गौर करना पडेगा।

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  2. दी हुई बातोंपर गौर करना पडेगा।
    1) ओबीसी जातीयोंकी पहचान राज्य मे सिमीत ना करे, मायग्रेटेड ओबीसी जाती के लिए सेंट्रल और स्टेटमे ओबीसी रिझर्वेशन देना चाहीएः -
    मंडल कमीशनने ओबीसी जातीयोंकी लिस्ट राज्य के आधारपर बनायी है। इसका परिणाम यह हो रहा है की एक राज्य के आबीसी जाती को दुसरे राज्य के ओबीसी के लाभ नही मिल रहे है। भारतीय संविधान हर व्यक्ती को देश के अंदर कीसी भी प्रदेश मे जाकर रहने और बसने की इजाजत देता है। लेकीन उसे जात-कॅटेगिरी के फायदे क्यों नही देता? क्या प्रदेश बदलनेसे उसकी जात बदल जाती है? क्या वो उची जातका बन जाता है? सच्चाइ तो यह है की, प्रदेश बदलने से वो औरभी ज्यादा शोषित-पिडीत बन जाता है। प्रदेश, बिरादरी सब छुट जानेकेबाद वो औरभी कमजोर हो जाता है। केवल एक गुजराथ मे ही नही पुरे देशमे ओबीसी जैसे पिछडोंका मायग्रेशन पेट भरने के लिये बडे पैमाने पर हुआ है और हो रहा है।
    सुरत का उधना शहर ऐसेही मायग्रेटेड ओबीसी लोगोसे भरा है। महाराष्ट्र मे उत्तर प्रदेश और बिहार से आनेवाले ज्यादातर लोग ओबीसीही है।.
    इसलिए मायगेटेड ओबीसी जाती के लिए सेंट्रल और स्टेटमे ओबीसी रिझर्वेशन देना बहोत जरुरी है। जिन राज्योंके मुख्यमंत्री ओबीसी है, उन्होने यह शुरुवात अपने राज्य से करना है। गुजराथ के असेंब्ली मे यह बील जल्दसे जल्द पास करवाए ताकी उनके दबाव मे केंद्रभी यह कानून बना सके।
    2) ओबीसी जातीयोंकी जनगणना (Census) अब स्टेट लेव्हल पर होनी चाहिएः-
    सेन्सस केवल सिर-गिणती नही होती. सेन्सस से समाज के हर तबके की जानकारी मिलती है, जिससे उसके सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक स्टेटस्‍ का पता चलता है। हमारे देश मे दलित, आदीवासी, मुस्लीम, शिख, ईसाई सब जाती धर्म के लोगों की गिणती होती है, मगर ओबीसी जातीयोंकी गिणती नही होती है। क्यों? जानवरोंकी गिणती करनेवाली सरकार ओबीसी की गिणती नही करना चाहती। क्या हम जानवरो से भी ज्यादा बद्तर है?
    देश की पार्लमेंटने, सुप्रीम कोर्ट ने, प्लॅनिंग कमीशनने, प्रधानमंत्री ने जोर देकर कहा है की, ओबीसी जनगणना 2011 की जनगणना के साथ होगी। लेकीन फिर भी ओबीसी जनगणना क्यो नही की गयी? देश मे ऐसी कोणसी शक्ती है, जो ओबीसी के खिलाफ काम कर रही है? सभी संवैधानिक संस्था, सर्वोच्च पदोंपर बैठे मान्यवर व्यक्ती और 52 प्रतिशत ओबीसी जनता एकतरफ और यह शक्ती एकतरफ। इस शक्ती को हमे पहचानना होगा।
    एस्सी और एसस्टी कॅटेगिरी की गिणती होती है, इसलिए उनके लिये बजेट मे पैसोंका प्रावधान कीया जाता है। देशके 2012-2013 के बजेट मे 15 प्रतिशत आबादीवाले शेड्युल कास्ट कॅटेगिरी के लिए 37,113 हजार करोड रुपयोंका का प्रावधान किया गया है। 7.5 प्रतिशत आदिवासीयोंके लिए 21,710 करोड का प्रावधान है। 52 प्रतिशत ओबीसी जातीयोंके लिए सिर्फ 722 करोड। दलित-आदिवासीयोंको जो दिया गया है वो उनका हक है। क्योंकी उनकी जनसंख्या जितनी है, उतना उनको मिल रहा है। लेकीन ओबीसी को जो मिल रहा है वो भीख मे मिल रहा है। ‘’इतना कम क्यों?’’ ऐसा सवाल आप सरकारसे पुछ नही सकते। क्योंकी आजकी तारीख मे आप कीतनी संख्या मे हो, यही अगर आप नही कह सकते तो आपको जो दिया जा रहा है, उतने मेही आपको खूश रहना है। आप के दरवाजे पर आया हुआ भिकारी अगर यह सवाल पुछे के ‘’रोटी का तुकडा क्यों, पुरी रोटी क्यों नही?’’ तो आप कौनसी मिजाज मे और कौनसे शब्दो मे उसका सम्मान करोगे यह कहनेकी जरुरत नही। 52 प्रातिशत ओबीसी जातीयोंका हिस्सा 15 प्रतिशत उची जातीके लोग खा रहे है।
    अभी जो केंद्र सरकार बिनापेपर (Paperless) आर्थिक सर्वेक्षण के नामपर ओबीसी का कास्ट सेन्सस कर रही है, वो फेक (fake) सर्वे है। उससे ओबीसी हित होनेके बजाय नुकसानही होनेवाला है। केरल के नंबुद्रीपाद सरकारने अपने राज्य मे कास्ट सेन्सस कीया था, उसी तरह स्टेट लेव्हलपर ओबीसी जनगणना करके ओबीसी जातीयोंकी संख्या तय की जा सकती है। इसी संख्या के आधारपर ओबीसी जाती के लिए बजेट मे प्रावधान कीया जा सकता है और उसी संख्या मे रिझर्वेशन भी दिया
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  3. इसी संख्या के आधारपर ओबीसी जाती के लिए बजेट मे प्रावधान कीया जा सकता है और उसी संख्या मे रिझर्वेशन भी दिया जा सकता है। जिन राज्योमे ओबीसी चिफ मिनिस्टर है, उन्होने यह कार्य जल्दसे जल्द शुरु करना चाहीए।
    3) सुप्रीम कोर्ट ने रिझर्वेशन की मर्यादा 50 प्रतिशत कर दी है, उसे रद्द करना होगाः-
    मंडल कमीशनके आनेसे पहलेही सुप्रीम कोर्टने 50 प्रतिशत से ज्यादा रिझर्वेशन देनेके लिए मना कीया है। इस मर्यादको तोडने के लिए राज्य के ओबीसी मुख्यमंत्रीयोने अपनी असेंब्लीयोमे बील पास करके केंद्र सरकारको भेजना चाहीए ताकी पार्लमेंटमेभी यह कानून बने और ओबीसी जातीयोंको अपनी संख्या के आधारपर रिझर्वेशन मिले। यह काम मान्यवर जयललिताजीने अपने तामीळनाडू राज्य मे 18 साल पहले ही कीया है।
    4) ओबीसी अफसर और कर्मचारीयोंको प्रमोशन मे रिझर्वेशन मिलना चाहिएः-
    आज सिर्फ दलित-आदिवासी अफसर-कर्मचारीयोंको प्रमोशनमे रिझर्वेशन मिल रहा है। इस वजहसे पिछडी जातीयोंमे आपसमे जातीद्वेष बढ रहा है। आज उत्तरप्रदेश के अखिलेश सरकारने यह प्रावधान रद्द करके संविधान के खिलाफ काम कीया है। इससे अप्पर कास्ट को ही फायदा पहुचेगा। अगर ओबीसी अफसर-कर्मचारीयोंकोभी प्रमोशन मे रिझर्वेशन मिलेगा तो पिछडी और अतिपिछडी जातीयों मे भाइचारा बढेगा। गुजराथ सरकार अगर इसतरह का प्रावधान करती है तो पुरा देश उसे फालो करेगा।
    5) नचिअप्पन कमीटी के रिकमेंडेशन पास करेः-
    2005 मे सेंट्रल गव्हर्नमेंटने ओबीसी के हित मे पार्लमेंट के सदस्य नचिअप्पन के अध्यक्षता मे पार्लमेंट्री कमीटी बनायी थी। इस कमीटी की रिपोर्ट पार्लमेंटके टेबलपर आजभी पडी है। पार्लमेंटको 7 सालसे उसपर बहस करने के लिए टाईम नही मिल रहा है। गुजराथ सरकार उसे पहले अपने राज्य के असेंब्ली मे पास करवाए।
    6) पाठ्यपुस्तकोंकेलिए ओबीसी विचारधाराके आधारपर लेसन सम्मिलीत होः स्कूल कॉलेजसे लोगोंकी सोच बनायी जाती है। बचपन मे जो पढाया जाता है वो संस्कार बन जाते है। सत्ता मे आनेके बाद पाठ्यक्रम बदलनेका काम तुरंत कीया जाता है। तामिलनाडू, केरल, प. बंगाल, उत्तर प्रदेश ऐसे कई राज्योमे सत्ता पलटने बाद स्कूल-कॉलेजेस की पाठ्यपुस्तके बदल दी गयी है। गुजरात के चिफ मिनिस्टर ओबीसी होने बावजूद पाठ्यक्रम नही बदला गया। अगर लोगोंकी साम्प्रदायिक एंवम्‍ जातीद्वेष की सोच को जडसे उखाडना है, तो प्रायमरी स्कूल से लेकर महाविद्यालय तक सभीके पाठ्यक्रममे समता और भाईचारा सिखानेवाले तात्यासाहेब महात्मा जोतीराव फुले, क्रांतीज्योती सावित्रीमाई फुले, स्वामी पेरियार, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर इन महामानवोंके विचार सम्मिलीत करना चाहिए।

    इसतरह के और भी कई काम ओबीसी नेता अपनी अपनी राज्य मे कर सकते है और अपने ही कॅटेगिरी के बलबुतेपर देश के नेता बन सकते है। हमारे कुछ पिछडे अतिपिछडे जाती के नेता अप्पर कास्ट की मदतसे देश के नेता (प्राइम मिनिस्टर) बननेका ख्वाब देख रहै। अप्पर कास्ट की सीडी आपको चिफ मिनिस्टर के कुर्सीतक पहुचा सकती है, प्राइम मिनिस्टर की गद्दीतक नही। सोशल इंजिनियरिंग फेम बहन मायावती के हाल हम देख रहे है। इसका मतलब यह नही है की, पिछडी जातीका व्यक्ती पी.एम. नही बन सकता। 2014 का इलेक्शनन ओबीसी पीएम बननेके लिएही है। लेकीन जिस ओबीसी नेता को पीएम बनना है उसने आगे दिए हुए सवाल खुदको पुंछना है, जबाब अपनेआप मिल जाएंगे।
    1) क्या आप 5 प्रतिशत अप्पर कास्ट के सपोर्टसे पीएम बनना चाहते है या 52 प्रतिशत ओबीसी जाती के सपोर्टसे?
    2) परीस्थीती के दबाव मे अप्पर कास्ट आपको पीएम बना भी दे, तो वो आपको ओबीसी के लिए काम करने देगी? (ओबीसी के मसिहा वी.पी. सिंग साहब को याद कर लिजिए।)
    3) अगर आप उनके गुलाम भी बने रहे, तो भी वो आपको ज्यादा दिन तक उस कुर्सीपर बैठने नही देंगे। क्योंकी उनका संविधान (मनुस्मृती) इसकी इजाजत नही देता।
    4) इसके बजाय आप अगर ओबीसी जाती के सपोर्ट से पी.एम. बनना पसंद करोगे तो आपको उस कुर्सी से मरते दमतक कोइ नही हटा सकेगा।
    इसलिए आपको आजसे ही ओबीसी के भले का काम शूरु करना है। उपर दिए हुए छे ऍक्शएन प्रोग्राम इस दिशा मे काम करने के लिए है। अब सिर्फ करवट बदलनेसे काम नही चलेगा। पुरे देश मे ओबीसी क्रांतीकारी परीवर्तन के लिए दौड शूरु हो गयी है। जो ओबीसी नेता इस दौड को आगेसे लीड करेगा वही देशके लिए ‘मुकद्दर का सिकंदर’ कहलाएगा।


    --------- प्रोफे. श्रावण देवरे,
    उपाध्यक्ष, महाराष्ट्र ओबीसी संघटना
    जनरल सेक्रेटरी, ओबीसी सेवा संघ
    संस्थापक, सत्यशोधक छत्रपती ज्ञानपीठ

    मान्यवर जयंतीभाई मनानी, अध्यक्ष, ओबीसी समर्थन समीती, गुजराथ

    मान्यवर निवृत्ती भाई लोखंडे अध्यक्ष, महात्मा फुले परीषद ट्रस्ट,

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