शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

शुरूआत हरियाणा से करें

हम अक्षय ठाकुर और उसके दरिंदे साथियों के शुक्रगुजार है कि उन्हो ने वह दुष्कर्म इस देश की पाटनगरी में किया जो दुष्कर्म उनके पुरखें हजारों सालों से इस देश की दलित-आदिवासी-मूल निवासी औरतों के साथ गांवों में करते आये हैं. और इस देश की सुष्माओं को आंदोलित किया और कहने पर मजबूर किया कि बलात्कारियों को फांसी की सजा दी जाय. तो शुरुआत हरियाणा से करते हैं. आप की क्या राय है?

बुधवार, 28 नवंबर 2012

महात्मा जोतीबा फुले



आज आदरणीय जोतिबा फुले का स्मृति दिन है. उन्हो ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की थी. 1873 में स्थापना के दो साल बाद 1875 में जब वे समाज की गतिविधियों का विवरण दे रहे थे, तब उन्होने अपनी बात इस तरह रखी थी:

"ब्राह्मण, पंडित, जोशी, उपाध्याय-पुरोहित आदि लोगों की दासता से शुद्र लोगों को मुक्त करने के लिए, जो अपने स्वार्थी ग्रंथो के द्वारा आज हजारों सालों से शुद्र लोगों को नीच समजकर गफलत में लूंटते आ रहे है. इसलिए उपदेश और ज्ञान के द्वारा उनको उनके सही अधिकार समजाने के लिए, मतलब, धर्म और व्यवहार से संबंधित ब्राह्णों के नकली और स्वार्थी ग्रंथो से उनको मुक्ति दिलाने के लिए कुछ जानकार शुद्र लोगों ने इस समाज की स्थापना दि. 24 सितम्बर, 1873 को की है. इस समाज में राजनीतिक सवालों पर बोलना सख्त मना है." 

जोतिबा फुले उन्नीसवीं सदी के महान भारतीय विचारक थे. आज हमारे देश में कोई गोपालक या कोई दलित मुख्यमंत्री बन सकता है तो इसका श्रेय जोतीबा को ही जाता है. जोतीबा की परंपरा बाबासाहब अंबेडकर ने आगे बढाई थी. हमें उसी परंपरा को आगे ले जाना है. नागपुर के एल जी मेश्राम विमलकीर्ति ने महात्मा फुले रचनावली का संपादन किया है. जिसका प्रकाशन राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड (7-31, अंसारी मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-110 002) द्वारा किया गया है. और संपर्क इ-मेइल है - info@radhakrishnaprakashan.com. हर विचारशील व्यक्ति के घर में यह ग्रंथ होने ही चाहिए.

"अरे, सभी मराठी अखबारों के संपादक ब्राह्मण होने की वजह से उनको अपनी जाति के लोगों के विरुद्ध लिखने के लिए हाथ नहीं चल रहा है. जब युरोपीयन मुखिया था, उस समय वह उन ब्राह्मणों की चतुराई चलने नहीं देता था. उस समय सभी ब्राह्मण संगठित होकर उनपर आरोप लगाते थे कि उनके ऐसा करने से हम सभी प्रजा का इस तरह से नुकसान हुआ है. इस तरह ये ब्राह्मण लोग उनके विरुद्ध इस तरह गलत-सलत अफवाएं फैलाकर उनको इतना त्रस्त कर देते थे कि उनको अपने मुखियापद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पडता था और वे आगे इस म्युनीसीपालीटी का नाम लेना भी छोड देते थे."
(पेइज 219, महात्मा जोतीबा फुले रचनावली-1)
 

बुधवार, 21 नवंबर 2012

गाय की पूजा



भारत में हजारों सालों से गाय की पूजा होती है. हिन्दु लोग गाय को माता कहते हैं. हम स्कुल में थे, तब गाय पर एक निबंध आता था. काउ इझ एनीमल. काउ इझ फोर फुटेड एनीमल. हमने कभी हमारे शिक्षकों से यह सवाल नहीं पूछा कि गाय को हम क्यों माता कहते हैं. सिर्फ एक ही जानवर को माता का इतनी बडी पदवी क्यों दी गई है?

गाय हजारों सालों से देश के कृषि अर्थतंत्र की जीवनडोर बनी हूई है. गाय खुद दूध देती है, इसक अलावा गाय की संतति भी हमें आर्थिक रूप से अत्यंत उपयोगी है. गाय के बछडे के वृषण काटने से बेल बनता है. बेल प्रजनन नहीं कर सकता. बेल खेती, परिवहन के कामों में उपयोगी होता है. अगर आप किसी आदमी के वृषण काट ले तो उसे कितनी भयानक पीडा होगी? भारतीय दंड संहिता की धारा 307 तहत यह गंभीर गुनाह है और "एटेम्प्ट टु मर्डर" की व्याख्या अंतर्गत आता है.

हजारों सालों से हमने न जाने कितने बछडों के वृषण काटें, उन्हे बेल बनाया, उन्हे हल के साथ बांधकर ढेर सारी फसल उगाई, यहां तक कि उनका प्रजोत्पत्ति का अधिकार भी छीन लिया. अपनी नजर के सामने अपने प्राणप्यारे बछडों के वृषणों को काटते हुए इन्सानों को देखकर गायों को कितना दुख हुआ होगा इसका अंदाजा हम नहीं लगा सकते. जिस हाथ से आप वृषण काटते हैं, इसी हाथ से गाय के मस्तक पर तिलक करते हैं और गाय माता की जय पुकारते हैं. वह आपकी गील्ट फीलींग है या दांभिकता कि आप गाय को माता कहते है...

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

धर्मांतर विरोधी बिल के खिलाफ


तमिलनाडु के बाद गुजरात में 2003 में मोदी सरकार ने धर्मांतर विरोधी कानून पारीत किया. गुजरात के तमाम बहुजन, दलित सामाजिक, बौद्ध संगठनों ने उसके खिलाफ आवाज़ उठाई थी. अहमदाबाद के टाउनहोल के पास बिल को जलाया गया था. मजे की बात यह थी कि सबसे पहले यह बिल कांग्रेस ही लाई थीजो व्यापक विरोध होने से विधानसभा में पारीत नहीं किया गया था. गुजरात में 2002 के बाद हिन्दुत्ववादी ताकतें मजबूत होने से मोदी यह बिल लाने की जुररत कर सका था. यह दुर्लभ तसवीर उस समय की है, जब सभी संगठन बहुजन संघर्ष मंच के बेनर तले इकठ्ठा हुए थे और अहमदाबाद के आंबेडकर होल में जब एक बडा संमेलन हुआ था. स्टेज पर है (from right side) कच्छ के बहुजन अग्रणी बाबुभाई बगडा, दलित पेंथर के नेता रमेशचंद्र परमार, बौद्ध अग्रणी बकुल वकील, रीपब्लिकन पार्टी के सोमचंदभाई परमार, नगीनभाई परमार, सीपीएम के अग्रणी, कामदार नेता आनंद परमार, पेंथर के स्थापक तथा काउन्सील फोर सोशल जस्टीस के नेता वालजीभाई पटेल, फाधर फ्रान्सीस परमार, बीहेवीयरल सायन्स सेन्टर के डायरेक्टर दिनेश परमार तथा राजु सोलंकी.











शुक्रवार, 25 मई 2012

हमारे भुपेन हजारीका


हम उन्हे रूदाली फिल्म के गायक के रूप में जानते हैं, मगर बहुत कम लोगों को इस बात का पता है कि महान गायक भुपेन हजारीका दलित थे, डोम जाति के थे. भुपेनदा के लिए संगीत सामाजिक परीवर्तन का शस्त्र था. अछूत, अंत्यज डोम जाति पर थोपे गए अस्पृश्यता के कलंक के खिलाफ बचपन से उनके मन में रोष था. युवावस्था में जाति का यही कलंक वह जिससे प्यार करते थे उस ब्राह्मण कन्या से दूर कर देता है.

आप का जन्म वर्ष 1926 में आसाम के सादीया क्षेत्र में हुआ था. गुवाहाती में अभ्यास करने के बाद आप बनारस हिन्दु युनिवर्सीटी में पढाई के लिए गए थे. आप ने 1952 में कोलम्बिया युनिवर्सीटी (न्यु योर्क) से मास कम्युनिकेशन में पीएचडी की उपाधी प्राप्त की थी. वहां उनके थीसीस का नाम था, 'युझ ऑफ सीनेमा फोर मास एज्युकेशन'.

भुपेनदा आसाम की संस्कृति के जागृत प्रहरी थे. भाषा आंदोलन के दौरान उनके संगीत ने आसामी युवाजगत पर गहरी असर छोडी थी. ब्लेक सींगर पाउल रोबीन्सन आपके दोस्त थे और आप का सबसे लोकप्रिय गीत 'विस्तीर्णो दुपारे' रोबीन्सन के गीत 'मेन रीवर' पर आधारीत था, जिसमें आपने युगो से गरीबी तथा दमन की साक्षी बनी गंगा नदी की कहानी का सुंदर निरुपण किया है.

आप ने उल्फा के खिलाफ भी आवाज उठाई थी, जिसे आप 'अनिष्ट' कहते थे. इन्डीयन पीपल्स थीयेटर के साथ आप का जुडना महज संयोग नहीं था, क्योंकि आप प्रारंभ से वाम विचारधारा से काफी प्रभावित थे. बोलीवुड को देश का एक मात्र सांस्कृतिक प्रतिनिधि समजनेवाले लोग भुपेनदा को रूदाली के गीत 'दिल हुम हुम करे'  से जानते है, मगर भुपेनदा के संगीत के पीछे इस देश की हजारों साल पुरानी अस्पृश्यता की गहरी वेदना छीपी थी, इसका किसी को पता नहीं था, उनके अपने भारतीय दलितों को भी नहीं. हम भारतीय दलित प्रांतवाद में कितने डटे है, डुबे हैं, इसका इससे बडा प्रमाण क्या होगा?      

रविवार, 29 अप्रैल 2012

मुंह में तंबाकु की छोटी सी गड्डी जितने लोग



"मुंह मे तंबाकु की छोटी सी गड्डी जैसा हमारा गांव", परेश रावल 'मालामाल वीक्ली' फिल्म में उसके गांव के बारे में ऐसा कहता है. वैसे परेश मोदी-भक्त है, मगर एक्टर अच्छा है. उसकी यह बात हमें अभी इस लिए याद आ गई कि हमारे देश में ब्राह्मण लोग भी मुंह में तंबाकु की छोटी सी गड्डी जैसे है, और जिस तरह से तंबाकु की छोटी सी गड्डी पूरे शरीर में नीकोटीन का जहर फैला देती है, उसी तरह ब्राह्मण हमारे शरीर और मन में 'हिन्दुत्व' का जहर फैला देते है.

यह बात हमें इसलिए भी याद आ गई कि अभी अभी हमारे ब्लोग में 'हिन्दु राष्ट्र किसे कहते है?' पोस्ट पर सूरत के राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के किसी राजपुरोहित ने 'जागो हिन्दुओ, हिन्दुस्थान हमारा है' नाम से टीप्पणी करते हुए लिखा है, "आप जेसे लोग इस हिन्दुस्थान मै पाप हो काश तुम भि गोधरा कान्ड मै मर गये होते बेव्कुफ जिन कार सेव्को को जिन्दा जलाया वो क्या अतन्वादि थे." कितनी सटीक बात कही है, इस संघी ने. हम सचमुच बेवकुफ है, वर्ना तंबाकु की छोटी गड्डी जितने लोग पूरे देश पर राज कैसे कर सकते हैं?

और गुजरात के हमारे दलित तो वाकई में बेवकूफ है, वर्ना जिन संघीओं ने 1985 में 70 दिन तक गांधीनगर सचिवालय में दलितों के रोस्टर के खिलाफ आंदोलन किया और रोस्टर खतम किया, दलितों के आरक्षण के खिलाफ बार बार दंगा किया और सत्ता में आने के बाद 40,000 बेकलोग की जगह कहां छू मंतर कर दी गई, किसी को पता तक चलने नहीं दिया, जिन संघीओ ने दलितों और आदिवासीओं को हिन्दुत्व के नाम पर उक्सा कर मुसलमानों के खिलाफ खडा कर दिया, उनकी चालाकी कोई समज नहीं पा रहा है, और वे हमें आज बेवकूफ कहने की हिंमत कर सकते हैं. हम वाकई में मूर्ख ही है.

मगर हम हमें हमारी मूर्खता का पता चल गया है. ये हमारे सारे ब्लोग्स उसी का नतीजा है.  

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

गोधराकांड - दस साल बाद



दस साल के बाद गोधराकांड के बारे में सोचता हूँ तो मन में एक प्रश्न उठता है। क्या एक्शन-रीएक्शन की फेनेटिकली मोडीफाईड (एफएम) थीयरी सही है? जैसे कि,

-       1993 में बाबरी मस्जिद को ध्वंश करने के लिये कट्टरपंथी हिन्दुओं का एक्शन।

-       2002 में गोधरा में ट्रेन जलाने का रीएक्शन

-  बदला लेने के लिये समस्त राज्य में लघुमतियों के उपर राज्य प्रेरित वंशीय संहार का एक्शन।

- घिनौने हत्याकांडो के साथ चुनावो में हिन्दुत्व की लहर का रिएक्शन,

और फिर,

पिछले दस सालो में आई वाइब्रन्ट एक्शनो की बाढ,

  रू.1200 करोड के खर्च से साकार हुई रीवरफ्रन्ट योजना, जिसने    सर्जी विस्थापितों की कतार और पंतगोत्सव की भरमार,

  जहां गांवो में से 50 से 85 प्रतिशत लोग रोजीरोटी की खोज में पलायन करते है, ऐसे कच्छ में 7000 रू के ए.सी टेन्टो में शुरू हुई रणोत्सव की क्रीडा,

-           जिसका बाजार मूल्य रू.10,000 प्रति चोरस मीटर है, उस जमीन ताता को 900 रू प्रति चोरस मीटर के भाव से बेचकर रू. 30,000 करोड रूपये का फायदा करवाया,

-          जिसके वतन रूपपुर में दलितों की स्मशानभूमि छीन ली गई उस निरमा के करसन पटेल को रू. 2500 करोड में सीमेन्ट बनाने के लिये 'देवो को भी दुर्लभ' महुवा की उपजाऊ जमीन देने की सरकार ने जिद की,

-    पिछले साल 52 लाख और इस साल 60 लाख गट्ठर रू की ‘वाईब्रन्ट' निकास में जेनेटिकली मोडिफाईड (जीएम) बीटी कोटन का 90 प्रतिशत हिस्सा है, जिसकी बोआई में हर साल एक लाख मासूम आदिवासी बच्चों की पढाई और जिंदगी खत्म होती है,

बीते दस सालो में किसने क्या किया?

भाजपा सरकार - उसने ब्युटिफिकेशन, ग्लोबलाईझेशन, प्राईवेटाईझेशन का कांग्रेस के द्वारा शुरू किये गए एजेन्डा का अत्यंत घातकी रूप से अमल किया. रीवर फ्रंट योजना का सपना दलित मेयर जेठालाल परमार के समय में कांग्रेस ने देखा था. 1984-85 में कागदीवाड को चारो तरफ पुलिस ने घेरा डाला उस वक्त स्वैच्छिक संस्थाये नदी के पट में उतर पडी थी. 2002 के नरसंहार ने नागरिक समाज को और अधिक संवेदनहीन बना दिया ऐसा कहेंगे? या बिल्डर लॉबी और सत्ता की सांठगांठ अधिक सबल बनी है ऐसा कहेगें?

कांग्रेस - गुजरात में नरेन्द्र मोदी के सबसे मजबूत समर्थक के रूप में कोंग्रेस की कामगीरी इतिहास में जरूर दर्ज की जायेगी. गुजरात में नरेन्द्र मोदी सत्ता पर रहेगा, तब तक समग्र भारत के मुसलमान कांग्रेस को ही वॉट देंगे यह समीकरण सच साबित हुआ.

सेक्युलर सवर्णों – दंगो में दलितों-आदिवासियों ने बडे पैमाने पर हिस्सा लिया, इस अफवाह का देश और दुनिया में ढोल बजा बजाकर प्रचार किया और खुद गील्ट फीलिंग में से मुक्त हो गये. सवर्ण होने के नाते दलितों, आदिवासीओं की ओर से बोलने का ठेका तो था ही, अब सेक्युलर बने तो मुसलमानो के प्रवक्ता बनने का बोलने का अधिकार भी मिल गया.

एनजीओ - दस साल बाद इन्साफ की डगर पर प्रोजेक्ट आधारित एनजीओ इकठ्ठी हो सकती है, परन्तु समुदाय इकठ्ठे नहीं होते.

मध्यम वर्ग - माधवसिंह सोलंकी गुजरात को जापान बनाने की  बाते किया करते थे, तब उन्हे एहेसास नहीं होगा कि उनके पक्ष की जडें उखाड फेंकनेवाला प्रत्याघाती विचारधारा को समर्पित पक्ष हिन्दु मध्यमवर्ग की आंखो पर विकास की पट्टी बांध देगा. बीते दस सालों में मध्यम वर्ग और भी स्वार्थी बना है. भ्रष्ट व्यवस्था के सभी लाभों को अपनी जेब में डालकर "मैं अन्ना हजारे हुँ" की टोपी पहेनकर आश्रम रोड पर दौडने लगा यह मध्यम वर्ग.

मुसलमान - गोधराकांड को एक भयानक दु:स्वप्न समझकर मुसलमान अस्तित्व के संघर्ष में दुगनी ताकात से जुट गया. भाजप गुजरात में हमेशा रहेगा ही ऐसी दहशत के साथ जीने की आदत पड गई. परन्तु लंगडे घोडे जैसी कांग्रेस को वॉट देने की लाचारी उसे खटक रही है.

दलितो - "जिस दिन हरिजन हथियार लेकर सवर्णो पर हमला करेंगे, उस दिन मैं पांव में घूंघरु पहनकर नाचूंगा" ऐसा 30 साल पहले अमदाबाद के आंबेडकर हॉल में कहनेवाले भानु अध्वर्यु के हर एक शब्द पर मैं तालिया बजाता था। 2002 में मुसलमान विरोधी सवर्ण-आक्रोश में दलितों को भी शामिल होता देख कर मैं सोचता था, क्या यही समाज परिवर्तन है, जिसके लिये मैं इतना रोमांचित था?

दस सालो में दलितों का अग्रवर्ग कांग्रेस को छोडकर भाजपा की तरफ मुडा है और सत्ताकेन्द्र के पास रहकर पर्याप्त मखन-मलाई खाने के बाद अब दलित समाज के लिये चिंतन शिबिर आयोजित कर रहा है. संघ परिवार के मासिक "समरसता सेतु" के फरवरी-2012 अंक के मुताबिक, धंधुका तहसील के ब्राह्मण बटुकों को यज्ञोपवित संस्कार प्रसंग पर गुरुमंत्र की दीक्षा एक दलित संत पूज्य श्री शंभुनाथजी महाराज के हाथो से दिया गया. गुजरात में संघ परिवार के एक प्रखर प्रचारक का शासन हो तब दलितो को ऐसी फिजूल बातो से संतोष कैसे हो सकता है? द्वारका, अंबाजी, डाकोर जैसे हिन्दुओं के पवित्र धामों में वाल्मिकी समाज के सुशिक्षित युवकों की बतौर पूजारी नियुक्ति हो तो ही सही समरसता होगी. नरेन्द्र मोदी को ये कहने की ताकात देवजीभाई रावत, प्रो. पी. जी. ज्योतिकर, मिनेश वाघेला जैसे भगवा-दलितों में है क्या?

हमने राजपुर-गोमतीपुर की बीस चालीओं के 1052 कुटुंबो के 4026 विद्यार्थीओ का सर्वे करवाया तब ड्रोप-आउट रेट का प्रमाण 54.11 जानने मिला. कोलकत्ता के सोनागाछी विस्तार की सेक्स वर्कर्स के संतानो के ड्रोप-आउट रेट का प्रमाण भी लगभग इतना है. इसकी जानकारी पश्चिम बंगाल के महिला और बाल कल्याण मंत्रालय और युनिसेफ ने संयुक्तरूप से अपने अभ्यास में दी गई है. सिर्फ एक सूत्र में दलितों की हालत व्यक्त करनी हो तो, मैं कहूंगा कि, गांव में खेत नही, शहर में शिक्षा नही."
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बीते दस सालो में दलितों और मुसलमानो के बीच जो खाई खडी हुई वह तो सिर्फ एक परिणाम है, उसकी जड तो सन् 1981 में शुरू हुये आरक्षण विरोधी दंगो में है, जिसका विस्तार से वर्णन मैंने मेरी लघु पुस्तिका "भगवा नीचे लोही" में की है. गोधरा में हुए संमेलन "न्याय की खोज" में मैंने दो प्रमुख मुद्दें कहे थे, वे प्रस्तुत करता हूँ. मैंने कहा था, "नरेन्द्र मोदी के पोलिटिकल एन्काउन्टर का समय हो गया है. तीस साल पहले गुजरात की विधानसभा में मुसलमानों के  नव प्रतिनिधि बैठते थे. आज सिर्फ चार धारासभ्य है. बाकी की पांच बेठको पर भाजपा के उम्मीदवार चुने गये है. भाजपा ने मुसलमानो के खिलाफ दलितों, आदिवासीओ और पिछडो को उकशाया और दंगे करवाये. मुसलमाने ने जो बैठके गंवाई उनमें से एक भी  बैठक पर आज दलित, आदिवासी या पिछडे वर्ग का कोई भी व्यक्ति नही चुना गया. नरेन्द्र मोदी सचमुच सदभावना चाहते है तो, कम से कम एक मुसलमान को तो उनकी केबिनेट में मंत्री बनाया होता...

आनंदीबहेन ने पाटण के दलित महोल्लो में जाकर सफाई कर्मचारी वृद्धो के पांव धोये. और समस्त गुजरात के सफाई कर्मचारी खुशी से गदगदित् हो गये. आनंदीबहेन तो नाटक करती है. हम नाटक नही करते. गोधरा का मुसलमान गुजरात का मुख्यमंत्री हो सकता है, शर्त बस इतनी है कि दलितों को समानता दिलाने के लिये उसे लडना होगा. आपकी तरह इस राज्य में बहोत लोग, दलितों, आदिवासीओ, पिछडे लोग न्याय की खोज में है. उनकी लडाई आपकी लडाई बनेगी तब ही आपकी जीत होगी."