सोमवार, 14 दिसंबर 2015

एक कहानी श्लोक की




श्लोक का स्कुल का वह पहला दिन था. उसकी मां पारुल उसे और उसके बडे भाई हर्ष को लेकर मेरी ओफीस पर आई थी. श्लोक ने मेरा पैर छुआ, मैंने उसे अपनी बांहों में ले लिया. श्लोक की मां बहुत खुश थी. श्लोक उससे भी ज्यादा खुश था, क्योंकि उसे प्रथम कक्षा में मुफ्त प्रवेश मील गया था. बहुत सारे बच्चों को हमने आरटीई एक्ट के तहत 25 फीसदी क्वोटा में प्रवेश दिलवाया, मगर श्लोक को जब एडमीशन मीला तब मुझे वाकई बहुत प्रसन्नता हूई थी. क्योंकि मैं जानता था कि पीछले पांच साल श्लोक और उसके परिवार के लिए कैसे गुजरे थे. 

श्लोक के पिता भानुकुमार श्रीमाली दलितों की गुरु ब्राह्मण जाति के थे. हमारे जन्म, मृत्यु के प्रसंगों में यह जाति पुरोहित का काम करती है. अब इस जाति का परंपरागत काम कम होता जा रहा है और दूसरी तरफ सरकारी नौकरियों में तथाकथित आरक्षण पर्याप्त नहीं है. भानुकुमार निजी क्षेत्र की एक कंपनी में प्युन का काम करते थे. आमदनी कम और उपर महंगाई की मार. भानुकुमार को कीडनी का असाध्य रोग हुआ. अहमदाबाद की सीवील अस्पताल के कीडनी डीसीझ एन्ड रीसर्च सेन्टर में उन्हे लाया गया. जब डोक्टर ने कहा कि भानुकुमार की कीडनी फेइल हो चूकी है और अब उसे बदलनी होगी, तब पारुल के सर पर बीजली तूट पडी. भानुकुमार की उम्र 46 साल थी और पारुल भी 33 साल की थी. जिंदगी की नैया अभी तो मज़धार में थी. 

भानुकुमार के माता-पिता उनकी कीडनी बदलने की बात का विरोध कर रहे थे. मगर पारुल अपने पति की जिंदगी किसी भी किंमत पर बचाना चाहती थी. भानुकुमार को कीडनी सेन्टर में लाया गया, उसी दिन भावनगर के लाभुबहेन गोहिल की लडकी नयना को भी सेन्टर में लाया गया था. नयना की भी कीडनी फेइल हो चूकी थी. नयना को कोई डोनर नहीं मीलता था क्योकिं उसका ब्लड ग्रुप o पोझीटीव था, जो दुर्लभ था. इस तरफ भानुकुमार का ब्लड ग्रुप o पोझीटीव नहीं था, मगर पारुल का ब्लडग्रुप o पोझीटीव निकला. पारुल ने अपनी कीडनी नयना को और नयना की मां ने भानुकुमार को अपनी कीडनी देने का फेंसला किया. 2014 के 7 अक्तुबर के दिन दोनों का ओपरेशन किया गया. भानुकुमार और नयना दोनों बच गए और दोनों के परीवर खुशहाल होकर अपने घर गए.

मगर किस्मत अभी पारुल की अग्निपरीक्षा ले रही थी. छ माह पश्चात भानुकुमार फिर से बिमार हुए. उनकी कीडनी को इन्फेक्शन लगा. उनकी देहांत हो गई. पारुल और उसके दो बच्चों ने अपने माथे का छत्र गंवा दिया. एक औरत ने अपने पति के लिए अपनी कीडनी दे दी. मुझे नहीं लगता कि इससे बडा त्याग कोई अपनी जिंदगी में कर सकता है. पारुल हिंमत नहीं हारी. वह मुस्कराते कहती है, मेरा पति मर गया, मगर नयना अभी जिंदा है. नयना चार साल से डायालीसीस पर थी. अब उसकी सेहत अच्छी है. नयना की मां लाभुबहेन अक्सर पारुल से बात करती रहती है.

पति के देहांत के बाद पारुल कैसे भी करके अपने बच्चों का और सास का निर्वाह कर लेती है. उसे दोनों बच्चों की पढाई की बडी चिंता थी. किसीने उसे कहा कि दलित हक्क रक्षक मंच शिक्षा के मुद्दे पर काम करता है, मंच तुम्हारी मदद करेगा. वह हमारे पास आई. 2015 के जून माह में 25 फीसदी क्वोटा के तहत एडमीशन की सारी प्रक्रिया पूरी होने के बाद भी हमने श्लोक का फोर्म भरा. डीइओ कचहरी से लडकर श्लोक को प्राइवेट स्कुल में एडमीशन दिलवाया. श्लोक के बडे भाई हर्ष की भी स्कुल फी का बंदोबस्त संस्था ने कर दिया. पारुल अभी भी जिंदगी की परेशानियां झेल रही है, मगर उसे मालुम है, दलित हक्क रक्षक मंच उसके साथ है.    

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