सोमवार, 21 जनवरी 2013

मैं कितना दुखी हुं


मै सुबह उठकर अमुल का दुध पीता हुं. विको वज्रदंती से मेरे दांत और नीरमा डीटरजन्ट से टोइलेट साफ करता हुं. जामनगर के कारीगर द्वारा बनाए गए बीस रूपये के लाइटर से पंचाल की गैस की सगडी पर पानी गर्म करता हुं और खादी ग्रामोद्योग के नीम साबु से नहाता हुं. उस वक्त ज्यादातर गुजरात के कवि माधव रामानुज की कविता "हळवे ते हाथे उठावजो रे अमे कोमळ कोमळ" गाना पसंद करता हुं. फिर लाल दरवाजा की फुटपाथ से खरीदे ढाइसो के स्पोर्ट्स शुझ पहनकर फील्ड में जाता हुं. अहमदाबाद की सडकों पर घूमने के लिए हमेंशा रीक्षा पकडता हुं. नेनो खरीदने के पैसे है मेरे पास, मगर मैं फिजुल खर्चा करना नहीं चाहता. गुजरात के विकास पुरुषों द्वारा अभी सीएनजी महंगा किया गया है, अभी दो दिन से रीक्षावालों की हडताल है, इस लिए मैं पैदल ही घूमता हुं. अर्थात, मेरी पसीने की कमाई का एक एक पैसा सात करोड गुजरातियों के पास वापस जाता है. फिर भी आज, लंडन में रहनेवाले एक एनआरजी (नोन-रेसिडेन्ट गुजराती) ने मुझे कहा कि मैं गुजरात का विरोधी हुं. मैं कितना दुखी हुं, आपको कैसे बताउं.     

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